सुख-समृद्धि, खुशहाली का प्रतीक हरियाली (धनपुड़ा) त्यौहार, बैशाखी पर्व

देशभर में अलग-अलग विधि-विधान से मनाये जाने वाले बैशाखी पर्व की झलक पहाड़ों में भी बखूबी देखी जा सकती है। लगभग 14 दिनों से कड़ी मेहनत और विशेष रखरखाव से उगाये गए धनपुड़ा (हरियाली) को आज गांववासी अपने स्थानीय देवी-देवताओं को चढ़ाते है और आज से ही पहाड़ों में बसन्तोत्सव की शुरुआत होती है।

जगह-जगह इस मेले को अलग-अलग तरह से लगभग 15 दिनों तक मनाते है। मन में एकाएक बसंत ऋतु की बहार के साथ धरती में कोंपलें फूटने के साथ पेड़-पौधों में नयी हरयाली आ गयी है। इस बीच पहाड़ों की गोद में बसे गांवों में भी पारंपरिक त्यौहारों का आगाज भी शुरू हो जाता है। इस बसंत ऋतु के खुशबू भरे वातावरण के बीच मन में हर्षोल्लास से भरी विचारों की श्रंखला दौड़ पड़ती है जब बिखोद या बैशाखी मेले का दिन नजदीक आता है। यह मेला नवोदित राज्य उत्तराखंड के सीमान्त जनपद चमोली में जोशीमठ के सेलंग, सलूड़, डुंग्रा, डुंग्री समेत पैनखंडा क्षेत्र के दर्जनों गांवों में सदियों से होता चला आ रहा है। गांव के भूमियल देवता मंदिर प्रांगण में अनवरत रूप से प्रत्येक वर्ष बैशाख माह के प्रारंभ में इस मेले का शुभारम्भ हो जाता है और मेले का समापन ऐतिहासिक रम्माण मेले के साथ होता है। बैशाखी मेले की तैयारी घर-गांव में काफी पहले से हो जाती है जिसके लिए चैत्र माह के 16 गते अनाज उगे खेतों से बारीक मिट्टी लायी जाती है और उसके 4 या 5 दिन धूप में सुखाया जाते है उसके बाद 19 गते या फिर 21 गते हरियाली उगाने के लिए घर के संदूक या फिर रिंगाल के बने बर्तन में उच्च तापमान पर रखा जाता है। बीच-बीच में हरियाली को प्रातःकाल में सींचा जाता है। उसके बाद बैशाखी के दिन तक हरियाली अपने पीताम्बर रूप में खूबसूरत अवस्था में उग आती है जिसे सबसे पहले अपने ईष्ट देवताओं को चढ़ाई जाती है उसके बाद एक सार्वजनिक पूजा में भूमि क्षेत्रपाल को चढ़ाई जाती है। हरियाली जिस साल लहलहा रही होती है वो प्रतीक होती है अच्छे फसल और पैदावार की और यदि हरियाली ठीक से नहीं उगी तो उसे अतिवृष्टि का प्रतीक माना जाता है और समझ जाता है कि उस वर्ष फसल और पैदावार अच्छी नहीं होगी। बैशाखी के दिन से लेकर प्रसिद्ध रम्माण मेले के आयोजन की तिथि तक प्रत्येक दिन गांव के परिवार भूमि क्षेत्रपाल भूमियाल देवता को भोग लगाते है और विधि-विधान से पूजा अर्चना करते है। इस तरफ इस पौराणिक परंपरा का अनवरत रूप से समापन होता है।

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