वन अधिकारों से जुड़े विश्वप्रसिद्ध चिपको आंदोलन की 50वीं वर्षगांठ

“क्या हैं जंगल के उपकार, लीसा, लकडी और व्यापार”

“क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार
मिट्टी , पानी और बयार, जिंदा रहने के आधार।”

उत्तराखंड राज्य पूर्व से ही आंदोलनों को धरती रही है आंदोलनों में एक वर्ष 1974 में चमोली जनपद के रैणी गांव से प्रारंभ हुआ वनों को बचाने का आंदोलन आगे चलकर चिपको आंदोलन के रूप में विश्व में प्रसिद्ध हुआ।
वन अधिकारों से जुड़े विश्वप्रसिद्ध चिपको आंदोलन के 50 वर्ष पूर्ण हो गए।

1970 के दशक में 26 मार्च 1974 को सीमांत जनपद चमोली के जोशीमठ के रैणी गांव में तत्कालीन महिला मंगलदल अध्यक्ष गौरा देवी और उनके 27 साथियों द्वारा 18 मार्च 1974 को साइमन कम्पनी के ठेकेदार को लेकर मजदूर अपने खाने पीने का बंदोबस्त कर जोशीमठ पहुँच गए थे। 24 मार्च को जिला प्रसाशन द्वारा बड़ी चालकी से एक रणनीति बनाई गई और रैणी के जंगलों तक पेड़ों के कटान हेतु मजदूर पहुंचाए गए जिसका गौरा देवी और उनके साथियों ने अपने जंगल को बचाने के लिए पेड़ों से चिपक कर उन्हें ठेकेदारों के हाथों कटने से बचाया गया जिसे बाद में एक बड़े आंदोलन, चिपको के रूप में जाना गया और देश, विदेश तक उस आंदोलन को ख्याति मिली। आज जहां से ये आंदोनल खड़ा हुआ रैणी गांव चिपको आंदोलन की 27 महिलाएं जिन्होंने गौरादेवी का संयोग किया था उनमें से 06 महिलाएं आज भी जीवित है जिनमें डोका देवी, उखा देवी, कल्ली देवी, जूठी देवी, बाली देवी, मंगुलि देवी, जेठुली देवी जीवित है और बाकी 21 गौरादेवी का सहयोग करने वाली महिलाएं अब इस दुनियां में नहीं है।

चिपको नेत्री स्वर्गीय गौरा देवी

वनों को बचाने और उनको संवर्धित, सुरक्षित करने का चिपको आंदोलन आज विकास की चकाचौंध में अप्रासंगिक होता जा रहा है। विकास के अनियमित पैमाने पर वनों का अंधाधुंध कटान एक ओर जहां हमारे पर्यावरण को असंतुलित कर रहा है वहीं दूसरी ओर मानव जनित भीषण प्राकृतिक आपदा को भी जन्म दे रहा है। जहां स्वर्गीय गौरा देवी जी का चिपको आंदोलन पर्यावरण संरक्षण के लिए एक प्रेरणा है वहीं वनों के प्रति लोगों के लगाव और अपनापन को स्थापित करता एक सच है।

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