फूलदेई-पारंपरिक त्योहारों को मनाने और बचाने सिर्फ सोशल मीडिया तक सीमित रह गया है?

फूल संक्रांति या फूलदेई का त्यौहार पहाड़ों में बसन्त के आगमन के सूचक के रूप में मनाया जाने वाला पारंपरिक उत्सव है। बच्चों द्वारा नवीन फूलों से घर की देहरियों को सजाना और घर-घर जा कर फुल-फुल देयी के रूप में दाल, चांवल, तेल मांगना और फिर उल्लास के साथ उनका भोग लगाना ये इस त्यौहार की मूल परंपराओं में से एक है। पर्वतीय गांवों में फलदार वृक्षों पर नवीन कोंपलें फूटना, धरती में फ्यूंली, चामड़ी, सिलपाड़ी के मनमोहक फूल और बुरांस की लालिमा बसंत के आगमन का जयघोष करते मन की अंतरिम क्षठा को भी इस समय भावविभोर करते है। विकट लेकिन शांतिमय हिमालयी जीवन में बसंत का अपना अलग महत्व है। फूलदेई जैसे धरती में नयीं कोंपलें फूटने का उत्साहस्वरूप त्यौहार है वैसे ही बच्चों का इसे अपने पारंपरिक और वर्षों से अनवरत मनाये जाने वाले उमंग का त्यौहार भी है।पिछले एक-दो दशक से पहाड़ी अंचलों के कुछ हिस्सों से व्यापक पलायन से भारी मात्रा में गांव खाली हुए है और बच्चों की चहचहाट और किलकारियां अचानक शहरों की तरफ विस्थापित होती चले गयी और नवीन पीढ़ी का उत्साह, उमंग सिर्फ सोशल मीडिया तक सिमट कर रह गया है जिस कारण फूलदेई ही नहीं पहाड़ों के अनेक त्योहारों से रौनक गायब सी हो चली है। सोशल मीडिया और गोष्टियों तक परंपराओं को जीवित रखने का ये प्रयास एक असफल कोशिश है ये कहना उचित ही होगा। परंपराओं को जीवित रखे गांवों, क्षेत्रों को यदि बचाया और उनका संरक्षण नहीं किया जायेगा तो आने वाले सालों में ये त्यौहार, परंपराएं सोशल मीडिया के साथ-साथ चर्चाओं से भी गायब हो जायेगे।
खूबसूरत बसंत के आगमन के इस त्यौहार को आज पहाड़ों के दूरस्थ गांवों में सजीव रूप से देखा जा सकता है। वरन् वहां भी बचे-खुचे नौनिहाल ही अब इस प्रकार के त्यौहार का हिस्सा रह गए है जो कि दुर्भाग्यपूर्ण ही नहीं बल्कि चिंताजनक भी है।

क्या है फूलदेई
प्रत्येक वर्ष मार्च 14 या 15 तारीख को यह त्योहार मनाया जाता है। फूल संक्रांति या मीन संक्रांति उत्तराखंड के दोनों मंडलों में मनाई जाती है। कुमाऊं गढ़वाल में इसे फूलदेई और जौनसार में गोगा कहा जाता है। उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में सौर कैलेंडर का उपयोग किया जाता है। इसलिए इन क्षेत्रों में हिन्दू नव वर्ष का प्रथम दिन मीन संक्रांति अर्थात फूलदेई से शुरू होता है चैत्र मास में बसंत ऋतु का आगमन हुआ रहता है। प्रकृति अपने सबसे बेहतरीन रूप में विचरण कर रही होती है। प्रकृति में विभिन्न प्रकार के फूल खिले रहते हैं।उत्तराखंड के मानसखंड कुमाऊं क्षेत्र में उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोकपर्व एवं बाल पर्व फूलदेई पर छोटे-छोटे बच्चे पहले दिन अच्छे ताज़े फूल वन से तोड़ के लाते हैं। जिनमें विशेष प्योंली के फूल और बुरांस के फूल का प्रयोग करते हैं। इस दिन गृहणियां सुबह-सुबह उठ कर साफ सफाई कर चौखट को ताजे गोबर मिट्टी से लीप कर शुद्ध कर देती है। फूलदेई के दिन सुबह सुबह छोटे छोटे बच्चे अपने वर्तनों में फूल एवं चावल रख कर घर घर जाते हैं । और सब के दरवाजे पर फूल चढ़ा कर फूलदेई के गीत, “फूलदेई छम्मा देई दैणी द्वार भर भकार ” गाते हैं और लोग उन्हें बदले में चावल गुड़ और पैसे देते हैं। छोटे छोटे देवतुल्य बच्चे सभी की देहरी में फूल डाल कर शुभता और समृधि की मंगलकामना करते हैं। इस पर गृहणियां उनकी थाली में गुड़ और पैसे रखती हैं। बच्चों को फूलदेई में जो आशीष और प्यार स्वरूप में जो भेंट मिलती है उससे अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग पकवान बनाये जाते हैं। फूलदेई से प्राप्त चावलों को भिगा दिया जाता है। और प्राप्त गुड़ को मिलाकर और पैसों से घी, तेल खरीदकर, बच्चों के लिए हलवा ,छोई , स्वाई, नामक स्थानीय पकवान बनाये जाते है वहीं बच्चे फाल्गुन के अंतिम दिन अपनी फूल कंडियों में फ्यूंली ,बुरांस, सरसों, लया, आड़ू, पैयां, सेमल, खुबानी, चूली और भिन्न-भिन्न प्रकार के फूलों को लाकर उनमे पानी के छींटे डालकर खुले स्थान पर रख देते हैं। अगले दिन सुबह उठकर फूलों के लिए अपनी कंडियां लेकर निकल पड़ते हैं। और मार्ग में आते जाते वे ये गीत गाते हैं और फुलारी घौर झै माता का भौंर, क्यौलिदिदी फुलकंडी गौर फूल-फूल माई चावल दे, तेल दे, आटा दे, के मीठे वचनों के साथ” प्योंली और बुरांश के फूल अपने फूलों में मिलकर सभी बच्चे,आस-पास के दरवाजों, देहरियों को सजा देते है सुख समृद्धि की मंगल कामनाएं करते हैं। फूल लाने और दरवाजों पर सजाने का यह कार्यक्रम पुरे चैत्र मास में चलता है लेकीन इस युग में आते आते ये त्यौहार की सारी परंपराएं आज विलुप्त होती हुई दिख रही है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Share

You cannot copy content of this page